आयुर्वेद की सम्पूर्ण जानकारी देवनागरी लिपी में --

आयुर्वेद


जीवन का आधार,आयुर्वेद और योग

 1.आयुर्वेद क्या है ?

आयुर्वेद विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा प्रणालियों में से एक चिकित्सा विज्ञान की एक शाखा है, जिसके अन्तर्गत प्राकृतिक जड़ी बूटियों का प्रयोग कर, जीवों में होने वाले रोगों/बीमारियों को ठीक कर सुखमय जीवन बनाने में किया जाता रहा है ।  आयुर्वेद दो शब्दों आयुः + वेद से मिलकर बना है,आयु का अर्थ जीवन व वेद का अर्थ विज्ञान अर्थात "जीवन का विज्ञान"

2.आयुर्वेद की उत्पत्ति-

आयुर्वेद की उत्पत्ति पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व माना जाता है । सनातन वेदों  में से एक वेद ऋग्वेद की ऋग्वेद संहिता में से आयुर्वेद का सिद्धान्त  यत्र-तत्र हजारों साल से आज तक फैला हुआ है । भारतीय उप महाद्वीप के आयुर्वेदिक ग्रन्थ  चरक,सुश्रुत,काश्यप आदि ग्रन्थ आयुर्वेद को अथर्वेद का उपवेद मानते है ।

     प्राचीन दार्शनिक सिद्धान्त के अनुसार संसार के सभी स्थूल पदार्थ पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पांच महाभूतों के संयुक्त होने से बनते हैं। इनके अनुपात में भेद होने से ही उनके भिन्न-भिन्न रूप होते हैं। इसी प्रकार शरीर के समस्त धातु, उपधातु और मल पांचभौतिक हैं। परिणामत: शरीर के समस्त अवयव और अतत: सारा शरीर पांचभौतिक है। ये सभी अचेतन हैं। जब इनमें आत्मा का संयोग होता है तब उसकी चेतनता में इनमें भी चेतना आती है।    

3.आयुर्वेद के प्रकार-

आयुर्वेद के ग्रन्थ तीन शारीरिक दोषों (त्रिदोष = वात, पित्त, कफ) के असंतुलन को रोग का कारण मानते हैं । किन्तु आयुर्वेद चिकित्सकों द्वारा चिकित्सा प्रणाली को अनुकूल रुप प्रदान करने के लिये आयुर्वेद को आठ शाखाओं में विभाजित किया गया है ।  

1.आंतरिक चिकित्सा  2.स्त्री रोग 3.प्रसूती रोग और बाल रोग 4. मनोचिकित्सा 5.सर्जरी 6. विष विज्ञान 7.जराचिकित्सा 8.शालाक्यतंत्र(कर्णनासाकंठ)

4.क्या आयुर्वेद  आधुनिक समय में प्रासंगिक है ?

आयुर्वेद के प्राचीन होने के बावजूद भी पश्चिमी चिकित्सकों व कुछ  लोगों द्वारा आयुर्वेद की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े किए जाते रहे है  किन्तु जहां आज भी एलोपैथिक में विभिन्न प्रकार के रोगों का इलाज सम्भव न होने के कारण आयुर्वेद के द्वारा उन बीमारियों के ईलाज को कारगर किया गया है ।  अन्य  चिकित्सा पद्धति में तत्काल प्रभावित करती है आयुर्वेद थोड़ा समय लेकर अपने प्रभाव को दिखाता है और बीमारियों का जड़ से इलाज करता है ।  रोगों के निदान में समय लगने के कारण से कुछ लोगों द्वारा आधुनिक युग में आयुर्वेद की प्रासंगिकता पर समय-समय पर सवाल खड़े किये जाते रहे  है । 

5.आयुर्वेद  के जनक-

    


      आयुर्वेद के जनक के रुप में धनवन्तरि को जाना  जाता है तथा वर्ष  2016 से प्रत्येक वर्ष धनतेरस के दिन राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस के रुप में मनाया जाता है  जिसका उद्देश्य आयुर्वेद चिकित्सा प्रणाली को बढ़ावा देना है ।  

6.आयुर्वेद का महत्व-

कुछ लोग आयुर्वेद के सिद्धान्त और व्यवहार को बहुत आधिक महत्त्व देते हैं और भारत और नेपाल श्रीलंका आदि देशों में हिन्दू ग्रन्थो के अनुसार आयुर्वेद को स्वयं ब्रह्मा ने प्रजा हित के लिए दिया हुआ विज्ञान है  मानते हैं।  अन्य इसके बजाय, इसे एक प्रोटोसाइंस, या ट्रांस-साइंस सिस्टम मानते और महत्व देते है ।आयुर्वेद न केवल रोगों की चिकित्सा करता है बल्कि रोगों को रोकता भी है।आयुर्वेद भोजन तथा जीवनशैली में सरल परिवर्तनों के द्वारा रोगों को दूर रखने के उपाय सुझाता है। 

7.आयुर्वेद की आलोचना

कुछ लोगों द्वारा जहां आयुर्वेद को विज्ञान की संज्ञा दी गयी है तो कुछ व्यक्ति आयुर्वेद की आलोचना भी करते है क्योंकि आयुर्वेद में समय और अनुशासन महत्वपूर्ण होने के कारण परिणाम नहीं नजर आते है तो समय -समय पर आयुर्वेद की आलोचना भी का जाती रही है । कैंसर अनुसन्धान यूके के अनुसार इस बात का कोई अच्छा प्रमाण नहीं है कि आयुर्वेद किसी भी बीमारी के इलाज के लिए कारगर है।  

8.आयुर्वेद के  प्रमुख  आचार्य व ग्रन्थ- 


आयुर्वेद के प्राचीन ग्रंथो के अनुसार, देवताओं कि चिकित्सा पद्धति बताया गया है । ग्रन्थो के अनुसार मानव कल्याण के लिए निवेदन किए जाने पर देवताओं द्वारा धरती के महान आचार्यों को दिया गया। इस शास्त्र के आदि आचार्य अश्विनीकुमार माने जाते हैं  आयुर्वेद के आचार्य ये हैं— अश्विनीकुमार, धन्वंतरि, दिवोदास (काशिराज), नकुल, सहदेव, अर्कि, च्यवन, जनक, बुध, जावाल, जाजलि, पैल, करथ, अगस्त्य, अत्रि तथा उनके छः शिष्य (अग्निवेश, भेड़, जतुकर्ण, पराशर, सीरपाणि, हारीत), सुश्रुत और चरक। ब्रह्मा ने आयुर्वेद को आठ भागों में बाँटकर प्रत्येक भाग का नाम 'तन्त्र' रखा । 

वर्तमान में आयुर्वेद में शि‍क्षण एवं प्रशि‍क्षण के विकास के कारण अब इसे विशि‍ष्ट शाखाओं में विकसित किया गया है। 

(1) आयुर्वेद सिद्धान्त (फंडामेंटल प्रिंसीपल्स ऑफ आयुर्वेद)

(2) आयुर्वेद संहिता

(3) रचना शारीर (एनाटमी)

(4) क्रिया शारीर (फिजियोलॉजी)

(5) द्रव्यगुण विज्ञान (मैटिरिया मेडिका एंड फार्माकॉलाजी)

(6) रस शास्त्र (इंटर्नल मेडिसिन)

(7) रोग निदान (पैथोलॉजी)

(8) शल्य तंत्र (सर्जरी)

(9) शालाक्य तंत्र (आई. एवं ई.एन.टी.)

(10) मनोरोग (साईकियाट्री)

(11) पंचकर्म ।

आयुर्वेद के प्रमुख ग्रन्थ निम्नवत है -------

रसविद्या

वृहत्त्रयी :

* चरकसंहिता --- चरक

* सुश्रुतसंहिता --- सुश्रुत

* अष्टांगहृदय --- वाग्भट

लघुत्रयी :

* भावप्रकाश --- भाव मिश्र

* माधवनिदान --- माधवकर

* शार्ङ्गधरसंहिता -- शार्ङ्गधर (१३०० ई)

अन्य:

अष्टांगसंग्रह (४०० ई)

मधुकोष -- विजयरक्षित एवं उनके शिष्य श्रीकण्डदत्त

आतङ्कदर्पण -- वाचस्पति वैद्य

मधुस्रवा

भेलसंहिता -- भेलाचार्य

काश्यपसंहिता (इसमें कौमारभृत्य (बालचिकित्सा) की विशेष रूप से चर्चा है।)

वंगसेनसंहिता/चिकित्सासारसंग्रह- वंगसेन

9.आयुर्वेद की भाषा शैलियाँ

                                            आयुर्वेद शब्दावली

अग्नि -- भौमाग्नि, दिव्याग्नि, जठराग्नि

अनुपान -- जिस पदार्थ के साथ दवा सेवन की जाए। जैसे जल , शहद

अपथ्य -- त्यागने योग्य, सेवन न करने योग्य

अनुभूत -- आज़माया हुआ

असाध्य -- लाइलाज

अजीर्ण -- बदहजमी

अभिष्यन्दि -- भारीपन और शिथिलता पैदा करने वाला, जैसे दही

अनुलोमन -- नीचे की ओर गति करना

अतिसार -- बार-बार पतले दस्त होना

अर्श -- बवासीर

अर्दित -- मुंह का लकवा

अष्टांग आयुर्वेद -- कायचिकित्सा, शल्यतन्त्र, शालक्यतन्त्र, कौमारभृत्य, अगदतन्त्र, भूतविद्या, रसायनतन्त्र और वाजीकरण।

आत्मा -- पंचमहाभूत और मन से भिन्न, चेतनावान्‌, निर्विकार और नित्य है तथा साक्षी स्वरूप है।

आम -- खाये हुए आहार को 'जब तक वह पूरी तरह पच ना जाए', आम कहते हैं। अन्न-नलिका से होता हुआ अन्न जहाँ पहुँचता है उस अंग को 'आमाशय' यानि 'आम का स्थान' कहते हैं।

आयु -- आचार्यों ने शरीर, इंद्रिय, मन तथा आत्मा के संयोग को आयु कहा है : सुखायु, दुखायु, हितायु, अहितायु

आहार -- खान-पान

इन्द्रिय -- कान, त्वचा, आँखें, जीभ, और नाक

उपशय -- अज्ञात व्याधि में व्याधि के ज्ञान के लिए, 

उष्ण -- गरम

उष्ण्वीर्य -- गर्म प्रकृति का

ओज -- जीवनशक्ति

औषध -- (१) द्रव्यभूत (जांगम, औद्भिद, पार्थिव) तथा (२) अपद्रव्यभूत (उपवास, विश्राम, सोना, जागना, टहलना, व्यायाम आदि)

कष्टसाध्य -- कठिनाई से ठीक होने वाला

कल्क -- पिसी हुई लुग्दी

क्वाथ -- काढ़ा

कर्मज -- पिछले कर्मों के कारण होने वाला

कुपित होना -- वृद्धि होना, उग्र होना

काढ़ा करना -- द्रव्य को पानी में इतना उबाला जाए की पानी जल कर चौथाई अंश शेष बचे , इसे काढ़ा करना कहते हैं

कास -- खांसी

कोष्ण -- कुनकुना गरम

गरिष्ठ -- भारी

ग्राही -- जो द्रव्य दीपन और पाचन दोनों काम करे और अपने गुणों से जलीयांश को सुखा दे, जैसे सोंठ

गुरु -- भारी

चतुर्जात -- नागकेसर, तेजपात, दालचीनी, इलायची।

त्रिदोष -- वात, पित्त, कफ ; इन तीनों दोषों का सम मात्रा (उचित प्रमाण) में होना ही आरोग्य और इनमें विषमता होना ही रोग है।

त्रिगुण -- सत, रज, तम।

त्रिकूट -- सौंठ, पीपल, कालीमिर्च।

त्रिफला -- हरड़, बहेड़ा, आंवला।

त्रिस्कन्ध -- आयुर्वेद की तीन प्रधान शाखाएं : हेतु, लिंग, औषध

तीक्ष्ण -- तीखा, तीता, पित्त कारक

तृषा -- प्यास, तृष्णा

तन्द्रा -- अधकच्ची नींद

दाह -- जलन

दिनचर्या --

दीपक -- जो द्रव्य जठराग्नि तो बढ़ाये पर पाचन-शक्ति ना बढ़ाये, जैसे सौंफ

धातु -- रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र  : ये सात धातुएँ हैं।

निदान -- कारण, रोग उत्पत्ति के कारणों का पता लगाना

निदानपञ्चक -- निदान, पूर्वरूप, रूप, उपशय, सम्प्राप्ति

नस्य -- नाक से सूंघने की नासका

पंचांग -- पांचों अंग, फल फूल, बीज, पत्ते और जड़

पंचकर्म -- वमन, विरेचन, अनुवासन बस्ति, निरूह बस्ति तथा नस्य

पंचकोल -- चव्य,छित्रकछल, पीपल, पीपलमूल और सौंठ

पंचमूल बृहत् -- बेल, गंभारी, अरणि, पाटला , श्योनक

पंचमूल लघु -- शलिपर्णी, प्रश्निपर्णी, छोटी कटेली, बड़ी कटेली और गोखरू। (दोनों पंचमूल मिलकर दशमूल कहलाते हैं )

परीक्षित -- परीक्षित, आजमाया हुआ

पथ्य -- सेवन योग्य

परिपाक -- पूरा पाक जाना, पच जाना

प्रकोप -- वृद्धि, उग्रता, कुपित होना

पथ्यापथ्य -- पथ्य एवं अपथ्य

प्रज्ञापराध -- जानबूझ कर अपराध कार्य करना

पाण्डु -- पीलिया रोग, रक्त की कमी होना

पाचक -- पचाने वाला, पर दीपन न करने वाला द्रव्य, जैसे केसर

पिच्छिल -- रेशेदार और भारी

बल्य -- बल देने वाला

बृंहण -- पोषण करने वाला ; विभिन्न लक्षणों के अनुसार दोषों और विकारों के शमनार्थ विशेष गुणवाली औषधि का प्रयोग, जैसे ज्वरनाशक, विषघ्न, वेदनाहर आदि।

भावना देना -- किसी द्रव्य के रस में उसी द्रव्य के चूर्ण को गीला करके सुखाना। जितनी भावना देना होता है, उतनी ही बार चूर्ण को उसी द्रव्य के रस में गीला करके सुखाते हैं।

भैषज्यकल्पना -- औषधि-निर्माण की प्रक्रिया जैसे स्वरस (जूस), कल्क या चूर्ण (पेस्ट या पाउडर), शीत क्वाथ (इनफ़्यूज़न), क्वाथ (डिकॉक्शन), आसव तथा अरिष्ट (टिंक्चर्स), तैल, घृत, अवलेह आदि तथा खनिज द्रव्यों के शोधन, जारण, मारण, अमृतीकरण, सत्वपातन आदि।

मन -- अणुत्वं चैकत्वं द्वौ गुणौ मनसः स्मृतः॥

मूर्छा -- बेहोशी

मदत्य -- अधिक मद्यपान करने से होने वाला रोग

मूत्र कृच्छ -- पेशाब करने में कष्ट होना, रुकावट होना

योग -- नुस्खा

योगवाही -- दूसरे पदार्थ के साथ मिलने पर उसके गुणों की वृद्धि करने वाला पदार्थ, जैसे शहद।

रसायन -- रोग और बुढ़ापे को दूर रख कर धातुओं की पुष्टि और रोगप्रतिरोधक शक्ति की वृद्धि करने वाला पदार्थ, जैसे हरड़, आंवला

रेचन -- अधपके मल को पतला करके दस्तों के द्वारा बाहर निकालने वाला पदार्थ, जैसे त्रिफला, निशोथ।

रुक्ष -- रूखा

रोगीपरीक्षा -- आप्तोपदेश, प्रत्यक्ष, अनुमान और युक्ति

ऋतुचर्या --

लंघन -- शरीर में लघुता लाने के लिए की जाने वाली चिकित्सा : (१) संशोधन (२) शमन

लघु -- हल्का

लिंग -- रोग की जानकारी के साधन : पूर्वरूप, रूप, संप्राप्ति तथा उपशयानुपशय

लेखन -- शरीर की धातुओं को एवं मल को सुखाने वाला , शरीर को दुबला करने वाला, जैसे शहद (पानी के साथ)

वमन -- उल्टी

वामक -- उल्टी करने वाले पदार्थ, जैसे मैनफल

वातकारक -- वात (वायु) को कुपित करने वाले अर्थात् बढ़ाने वाले पदार्थ।

वातज -- वात (वायु) दोष के कुपित होने पर इसके परिणामस्वरूप शरीर में जो रोग उत्पन्न होते हैं वातज अर्थात् वात से उत्पन्न होना कहते हैं।

वातशामक -- वात (वायु) का शमन करने वाला , जो वात प्रकोप को शांत कर दे। इसी तरह पित्तकारक, पित्तज और पित्तशामक तथा कफकारक, कफज और कफशामक का अर्थ भी समझ लेना चाहिए। इनका प्रकोप और शमन होता रहता है।

विरेचक -- जुलाब

विदाहि -- जलन करने वाला

विशद -- घाव भरने व सुखाने वाला

विलोमन -- ऊपर की तरफ गति करने वाला

वाजीकारक -- बलवीर्य और यौनशक्ति की भारी वृद्धि करने वाला, जैसे असगंध और कौंच के बीज।

वृष्य -- पोषण और बलवीर्य-वृद्धि करने वाला तथा घावों को भरने वाला

व्रण -- घाव, अलसर

व्याधि -- रोग, कष्ट

शरीर -- समस्त चेष्टाओं, इंद्रियों, मन और आत्मा के आधारभूत पंचभूतों से निर्मित पिंड को 'शरीर' कहते हैं।

शस्त्रकर्म -- छेदन, भेदन, लेखन, वेधन, एषण, आहरण, विस्रावण, सीवन

शमन -- शांत करना (पिपासा, क्षुत, आतप, पाचन, दीपन, उपवास, व्यायाम के प्रयोग द्वारा)

शामक -- शांत करने वाला

शीतवीर्य -- शीतल प्रकृति का

शुक्र -- वीर्य

शुक्रल -- वीर्य उत्पन्न करने एवं बढ़ाने वाला पदार्थ, जैसे कौंच के बीज

श्वास रोग -- दमा

शूल -- दर्द

शोथ -- सूजन

शोष -- सूखना

षडरस -- पाचन में सहायक छह रस - मधुर , लवण, अम्ल, तिक्त, कटु और कषाय।

सर -- वायु और मल को प्रवृत्त करने वाला गुण

स्निग्ध -- चिकना पदार्थ, जैसे घी, तेल।

सप्तधातु -- शरीर की सात धातुएं - रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र।

सन्निपात -- वात, पित्त, कफ - तीनों के कुपित हो जाने की अवस्था

स्वरस --  द्रव्य का रस 

संक्रमण -- इन्फेक्शन

संशोधन -- पंचकर्म (वमन, विरेचन, अनुवासन बस्ति, निरूह बस्ति तथा नस्य) द्वारा दोषो और मल को बाहर लाना

साध्य -- इलाज के योग्य

हिक्का -- हिचकी

हेतु -- रोगों का कारण 

क्रियाकाल -- चिकित्सा का जो उचित समय  ; 


10.आयुर्वेद में योग का महत्व-

आयुर्वेद और योग दोनों ही ग्रन्थों के अनुसार एक दूसरे के पूरक माने गये है, क्योंकि आयुर्वेद चिकित्सकों के परामर्श में औषधियों के साथ  योग को भी औषधि के स्वरूप ही वर्णित किया गया है । हजारों साल पुरानी एक वैदिक स्वास्थ्य प्रणाली से निकले है योग और आयुर्वेद  जो सम्पूर्ण स्वस्थ जीवन प्रणाली को प्रदर्शित करते है । जहां योग मन, शरीर और आत्मा  के सामंजस्य से संबंधित है,वहीं आयुर्वेद आहार और जीवनशैली में बदलाव के माध्यम से व्यक्ति  के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का ख्याल रखता है इन कारणों से विभिन्न योग रिट्रीट में कई कार्यक्रम पेश किये गये जिनमें योग और आयुर्वेद को एक साथ जोड़ा गया  । 

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